कालिदास सच–सच बतलाना (बाबा नागार्जुन) CSJMU BA-III (Hindi Literature)
छत्रपति साहू जी महाराज यूनीवर्सिटी (कानपुर यूनीवर्सिटी) के बी०ए० तृतीय वर्ष के पाठ्यक्रम में बाबा नागार्जुन की कविता ʺकालिदास सच–सच बतलानाʺ का व्याख्यात्मक प्रदर्शन–
बाबा नागार्जुन प्रगतिवादी काव्यधारा के प्रतिनिधि कवियों में से एक हैं| बाबा नागार्जुन को भावबोध और कविता के मिजाज के स्तर पर सबसे अधिक निराला और कबीर के साथ जोड़कर देखा गया है| नागार्जुन के काव्य में अब तक की पूरी भारतीय काव्य-परंपरा को जीवित रूप में देखा जा सकता है| उनका काव्य अपने समय और परिवेश की समस्याओं, चिंताओं एवं संघर्षों से प्रत्यक्ष जुड़ाव तथा लोकसंस्कृति एवं लोकहृदय की गहरी पहचान से निर्मित है| उनका ‘यात्रीपन’ भारतीय मानस एवं विषयवस्तु को समग्र और सच्चे रूप में समझने का साधन रहा है
कालिदास सच–सच बतलाना
इस कविता में नागार्जुन संस्कृत के महाकवि कालिदास के माध्यम से कविता की रचना प्रकिया की बात करते हैं| कालिदास ने अपने महाकाव्यों में जिन पात्रों की पीड़ा को अपने हृदय में अनुभव किया है| कालिदास के जिन महाकाव्यों का उद्धरण नागार्जुन ने दिया है, वे है:-
रघुवंश —- अज और इंदुमति
कुमारसंभव —- कामदेव और रति
मेघदूत —- यक्ष और उसका विरह
रघुवंश का प्रसंग–
‘कालिदास’ कविता का प्रथम अनुच्छेद ‘रघुवंश’ महाकाव्य के प्रसंग पर आधारित है| इस महाकाव्य में कालिदास ने महाराज अज के पत्नी के निधन पर प्रकट विलाप को मार्मिक अभिव्यक्ति दी है| नागार्जुन कालिदास से पूछते हैं:-
कालिदास सच सच बतलाना
इन्दुमती के मृत्युशोक से
अज रोया या तुम रोये थे?
कालिदास! सच-सच बतलाना!
कहने का भाव यह कि रघुकुल के महाराज अज का अपनी पत्नी के मृत्युशोक में जिस तरह के विलाप का चित्रण आपने किया है, वास्तव वह अज का विलाप था या फिर उसके दुख तुमने ही अपने भीतर धारण कर लिया| तुम्हारा यह विरह वर्णन देखकर तो यही महसूस होता है मानो महाराज अज के आँसू न होकर तुमने ही उनकी जगह आँसू बहाए हों ।
कुमार संभव का प्रसंग–
नागार्जुन ने इस कविता के दूसरे अनुच्छेद में कालिदास के महाकाव्य ‘कुमारसंभव’ का प्रसंग उद्धृत किया है| प्रसंग है कि असुरों के वध हेतु शिवजी के पुत्र की आवश्यकता थी| सती के दाह के पश्चात शिव वैरागी होकर समाधि में लीन थे| अत: सभी देवताओं ने शिव की समाधि तोड़ने और उनमें काम भावना जगाने हेतु प्रेम के देवता कामदेव को शिव के पास भेजा| कामदेव ने शिव की तपस्या तो भंग कर डाली परंतु स्वयं उनके क्रोध के पात्र बन गए| शिव की तीसरी आँख से निकली ज्वाला में जलकर राख हो गये।
शिवजी की तीसरी आँख से
निकली हुई महाज्वाला में
घृत-मिश्रित सूखी समिधा-सम
कामदेव जब भस्म हो गया
अर्थात जिस तरह घी लगी सूखी समिधा, हवन की ज्वाला में जलती है, उसी के समान कामदेव जलकर भस्म हो गया था|
रति का क्रंदन सुन आँसू से
तुमने ही तो दृग धोये थे
नागार्जुन कालिदास से प्रश्न करते हैं कि कामदेव के भस्म होने पर उनकी पत्नी रति का करुण क्रंदन सुनकर क्या तुमने भी आँसुओं से अपनी आँखें नहीं धोई थी
कालिदास! सच-सच बतलाना
रति रोयी या तुम रोये थे?
अर्थात रति के दुख का जो वर्णन तुमने काव्य में किया है उसे पढ़कर तो यही कहा जा सकता है कि रति की पीड़ा को तुमने हृदय की गहराइयों तक अनुभव किया था| तभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि वह आँसू रति के न होकर तुम्हारे ही तो थे|
मेघदूत का प्रसंग–
‘कालिदास’ कविता का तीसरा अनुच्छेद ‘मेघदूत’ महाकाव्य के प्रसंग पर आधारित है| ‘मेघदूत’ कालिदास का विरह काव्य है| इस परिच्छेद में यह कथा है कि एक यक्ष अपनी प्रियतमा को बहुत चाहता था| वह प्रियतमा के प्रेम में इतना डूब जाता है कि अपने स्वामी धन के देवता कुबेर की सेवा में गलती कर बैठता है| कुबेर क्रोधित होकर यक्ष को एक वर्ष पृथ्वी पर रहने का अभिशाप देते हैं| यक्ष पृथ्वी पर आता है परंतु वर्षा ऋतु प्रारंभ होते ही और आकाश में काली घटाओं के घुमड़ते ही यक्ष का मन प्रियतमा के विरह में व्याकुल हो उठता है| वह चित्रकूट पर्वत से बादलों को अपना दूत बनाकर प्रियतमा तक अपना संदेशा पहुँचाता है| नागार्जुन कालिदास से पूछते हैं कि
वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घन-घटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा
खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर
चित्रकूट से सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था
जिनके ही द्वारा संदेशा
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़ने वाले
कालिदास! सच-सच बतलाना
पर पीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थककर औ' चूर-चूर हो
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर
प्रियवर! तुम कब तक सोये थे?
रोया यक्ष कि तुम रोये थे!
कालिदास! सच-सच बतलाना!
बाबा नागार्जुन कहते है कि दूसरे के दुखों से परिपूर्ण होकर‚ थककर और थकान में चूर होकर पर्वत के शिखरों पर तुम कब तक साेये थे यानि कब तक तुमने उस पीडा का शोक मनाया था‚ कहते हैं कि यक्ष रोया था या तुम ही राेये थे‚ कहने का भाव है कि यक्ष की तरह विरह पीड़ा को कालिदास ने भोगा तभी तो विरह काव्य लिख पाए|
इस प्रकार नागार्जुन इस कविता के माध्यम से यह बताना चाहते हैं कि कोई भी कवि जब तक दूसरे के भावों को अपने में धारण नहीं कर लेता तब तक वह किसी दूसरे की व्यथा और पीड़ा के विषय में नहीं लिख पाता।
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